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लो! एक बार फिर पेपर लीक हो गया, पर किया किसने?
लो! एक बार फिर पेपर लीक हो गया, पर किया किसने?
पिछले दो दिनों से सोशियल मीडिया में नक़ल के लिए बस में मिले प्रतिभागियों के नाम बड़े जोर-शोर से लिये जा रहे है लेकिन पेपर जिसने शुरुआत में उपलब्ध करवाया औऱ जहाँ से प्राथमिक रूप से जारी हुआ क्या उनके नाम सामने आया?
क्या सरकार उसकी तह तक जाने की कोशिश कर रही है? सरकार का वहीं रटा रटाया जवाब की दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी। आख़िर दोषी है कौन उसका पता तो लगेगा तब ना? सजा देंगे किसे। जिन्होंने बाज़ार में उपलब्ध चीज को खरीदा उसे… इस प्रकरण में नहीं दूसरे कई प्रकरणों में देखने को मिला है कि मुख्य आरोपी हमेशा पुलिस की गिरफ्त से बाहर होता है।
कुछ महिनों पहले हमने देखा कि गुजरात में मोरबी पुल के गिरने से सैकड़ो लोगों की जान चली गई थी पुलिस ने लीपा पोती के लिए वहाँ के स्टाफ को गिरफ्तार करके इतिश्री कर दी पर कम्पनी मालिक आज भी पुलिस की गिरफ्त से कोसों दूर है। यह राजनीतिक सरंक्षण के बिना संभव नहीं है अन्यथा जैसे ही घटना हुई स्थानीय कार्मिकों को गिरफ्तार करने में पुलिस कोई लेट लतीफी नहीं दिखाई।
माना कि स्टाफ दोषी है पर मालिक भी कम दोषी नहीं है। मालिक तो पहले दोषी हुआ यह तो प्राकृतिक रूप से भी आसानी से समझ में आता है पर सत्ता में बैठे आकाओं को समझ में नहीं आता है। कम्पनी के मालिक की लापरवाही व पैसे कमाने की लालचा से लोगों की जाने गई। आज भी वह आजाद घूम रहा है। ऐसा का ऐसा राजस्थान में रीट का रायता फैला तब भी देखने को मिला। बड़ी मछलियों के नाम आये पर लीपापोती में बच गई औऱ आज भी वह अधिकारी अपने पदों पर जस के तस बने हुए है।
रीट के ज़ख़्म तो भरे ही नहीं थे कि सरकार की लापरवाही व राजस्थान लोक सेवा आयोग की घोर शिथिलता की वज़ह से वरिष्ठ अध्यापक शिक्षक भर्ती परीक्षा का पेपर आउट होने का दंश भी युवाओं को झेलना पड़ा। अब यहाँ सब पेपर खरीदने वाले व नक़ल करने में शामिल अभ्यर्थियों को दोषी मानकर अपनी राय दे रहे है पर क्या किसी ने गहराई में जाकर यह सोचने की कोशिश की है कि आख़िर इनको पेपर मिला कहाँ से औऱ सबसे पहली कड़ी कौनसी है जहाँ से यह पेपर आउट हुआ क्योंकि जब तक पहली कड़ी पकड़ में नहीं आएगी तब तक पेपर आउट करने वाले गिरोह को पकड़ना मुश्किल है। अभ्यर्थियों को परेशान करने की बजाय सरदार को पकड़े जिससे समस्या का समाधान हो सके। अभ्यर्थियों ने तो जो जिस बाज़ार में आई उसको खरीदा है।
मेरे हिसाब से प्रकृति भी इस बात की इजाज़त देती है। मैं मानता हूँ कि नैतिक तौर पर ग़लत है। मेहनत कश युवाओं व गरीब परिवार से पढ़ने वाले सैकड़ों लड़को के साथ ज़रूर अन्याय है सभ्य समाज इसकी इजाज़त नहीं देता पर क्या सारा दोष इनके माथे पर डाल कर हम इतिश्री कर ले॥समस्या जब विकराल होती है तब सोचने का दायरा भी विकराल करना पड़ता है। विकराल दायरे में सबसे पेपर आयोजित करवाने वाली एजेंसी होनी चाहिए पर हिंदुस्तान में उल्टा राज है।
सरकारे कहने को तो युवाओं के साथ खड़े होने का दावा करती है पर युवाओं में विश्वास पैदा करने की बात आती तब पैर पीछे खींच लेती है। पुलिस प्रशासन से भी जब बड़े आकाओं के बारे में पूछा जाता है या फिर सरकार पर कोई सवाल उठाता है तो बड़ी चतुराई से जाँच चल रही है, दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा यही जवाब सुनने को मिलता है॥
हमें समस्या की जड़ तक जाकर जड़ो को काटना होगा। टहनियों व पत्तो पर वार करने से समस्या जस की तस बनी रहेगी॥
(यह लेखक के अपने निजी विचार है)
गुलाब कुमावत खीमेल
साँचोर, जालौर
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